चोटी की पकड़–55
"तुझको पकड़ने। मैं गवाह हूँ।"
"तू गवाह है, बदमाश, नंगी नहा रही थी, तब तू देख रहा था या नहीं? और बहुत कुछ किया है, तुम दोनों ने।"
"हमको सब मालूम है।" नेपथ्य से मुन्ना ने कहा।
"तो फिर अब तुम्हीं फैसला कर दो।" जमादार ने काँपते हुए कहा। मुन्ना चुप हो गई ! रुस्तम ने कुर्सी नहीं छोड़ी।
"बदमाश कहीं का। फैसला कर दो !"
राजाराम कुर्सी के पास आ गया, "उठता है या नहीं?"
तुराब तंबू का पहरेदार था। दोमंज़िले की खिड़की से नीचे को देखते हुए कहा, "खबरदार, राजाराम, मैं भी गवाह हूँ। तुम दोनों बदमाश हो। जमादार-रुस्तम पकड़नेवाले हैं। मैं उनके साथ था।"
"तुम यहाँ से क्यों गए?" राजाराम ने पूछा।
"तुम यहाँ से क्यों गए?" तुराब ने डाँटा।
"हम बदमाश पकड़ने गए।"
"बदमाश पकड़ने नहीं गए, बदमाशी करने गए। उस बगीचे के अंदर मर्द के जाने का हुक्म नहीं, यह सबको मालूम है। तुम गए। जमादार-रुस्तम भीतर नहीं गए।"
इसी समय मुन्ना आ गई। कहा, "रानीजी का फैसला सबको मंजूर होगा।"
सबने समस्वर से कहा, "हाँ, होगा।"
मुन्ना ने कहा, "राजाराम आपस में लड़ो नहीं, अपना काम करो।" फिर जमादार से कहा, "जटाशंकर, इधर आओ।"
जटाशंकर को उसी जगह ले गई जहाँ पहली बातचीत हुई थी। रुस्तम मुस्कराता हुआ बैठा रहा।
तुराब ने कहा, "भाई, आपकी किस्मत खुल गई। हमारा ही पहला सलाम है।" रुस्तम ने टाँगें हिलाते हुए कहा, "हमको याद रहेगा।"
राजाराम ने जमादार को डिसमिस हुआ जानकर पहरे की वर्दी पहनते और तलवार बाँधते हुए कहा, "लेकिन जमादार का कोई कसूर नहीं।"